क्या आप जानते हैं कि विवाह करने की परंपरा का आरंभ कब और कैसे हुआ था?

यह तो सभी को ही मालूम होगा कि हमारे हिंदू धर्म शास्त्रों में हमारे 16 संस्कार बताए गए हैं। इन्ही संस्कारों में से सबसे महत्वपूर्ण विवाह संस्कार हैं। 

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हर कोई व्यक्ति अपने जीवन में एक अच्छे इंसान को अपना जीवनसाथी बनाकर उसके साथ सारी जिंदगी बिताना चाहता है। इसी के चलते हर लड़का और लड़की अपनी बढ़ती उम्र के साथ शादी का सपना देखने लगता है। लेकिन आज के समय में सायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसे यह मालूम होगा कि आखिर शादी करने की प्रथा कब से शुरू हुई।

शादी को व्यक्ति का दूसरा जन्म भी माना जाता है क्योंकि इसके बाद वर वधु सहित दोनों के परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। इसलिए विवाह के संबंध में कई महत्वपूर्ण सावधानियां रखना जरूरी है। विवाह के बाद वर वधू का जीवन सुखी और खुशियों से भरा हो, यही कामना की जाती है। 

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    विवाह का अर्थ

    विवाह यानी कि वि और वाह से मिलकर बनता है। अतः इसका शाब्दिक अर्थ है विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच जन्मजन्मांतरों का संबंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता।

     

    अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच में शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध होता है और इस संबंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

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    हिन्दू धर्म में विवाह संस्कार

    विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में 'त्रयोदश संस्कार' है। पढ़ाई समाप्त होने के पश्चात विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना होता है। ये संस्कार पितृ ऋण से उऋण होने के लिए किया जाता है। मनुष्य जन्म से ही तीन ऋणो से बंधकर जन्म लेता है। देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इनमें से अग्निहोत्र अर्थात यज्ञादि कार्य से देवरण। वेदादि शास्त्रों के अध्ययन से ऋषि ऋण और विवाहित पत्नी से पुत्र की उत्पत्ति आदि के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जाता है। 

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    विवाह करने की परंपरा का आरम्भ 

    सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन संबंध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान ना होने से मातृ पक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। ये व्यवस्था वैदिक काल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाश्विक संबंध मानते हुए नए वैवाहिक नियम बनाए गए। कृषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुम्ब व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ। आज कल बहु प्रचलित और वेद मंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाह को ब्रह्म विवाह कहते हैं। इस विवाह की धार्मिक महत्ता मन्नू ने कहा है कि ब्रह्म विवाह से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है 10 अपने आगे की 10 अपने से पीछे की और एक स्वयं अपनी। 

    भविष्य पुराण में लिखा है कि जो लड़की को अलंकृत कर ब्रह्म विधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने साथ पूर्वजों और सात वंशजों को नरक भोग से बचा लेते हैं।

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    हिंदू धर्म में सद्गृहस्थ की परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबंध मात्र नहीं है यहॉ दांपत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है।

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